छत्तीसगढ़ का ऐतिहासिक संदर्भ - गुप्तवंश, राजर्षितुल्य कुल, शरभपुरीय वंश, पाण्डुवंश

 

  • गुप्तवंश - समुद्रगुप्त थे गुप्त वंश के बहुत ही प्रभावशाली शासक। समुद्रगुप्त के बारे में सभी जानते हैं कि वे राज्य विस्तार के लिए लगातार प्रयत्न करते रहे थे। वे बहुत ही वीर नरेश थे। उनका नाम सुनते ही दूसरे राज्यों के राजा भयभीत हो उठते थे। समुद्रगुप्त ने जब दक्षिण-पथ पर अभियान आरंभ किया तो दक्षिण कौसल और बस्तर में वकाटकों का आधिपत्य खत्म हो गया। समुद्रगुप्त के साथ दक्षिण कौसल के राजा महेन्द्र और व्याघ्रराज (बस्तर के राजा) की लड़ाई हुई। इस युद्ध में महेन्द्र और व्याघ्रराज एकाएक हार गये। दोनों राजाओं ने गुप्त शासकों की अधीनता मान ली और अपने अपने राज्यों पर शासन करते रहे। छत्तीसगढ़ के बानबरद नामक जगह में गुप्तकाल के सिक्के मिले हैं। ये सिक्के यह प्रमाणित करते हैं कि छत्तीसगढ़ में गुप्त काल के राजाओं का प्रभाव था।

  • राजर्षितुल्य कुल - छत्तीसगढ़ के आरंभ में कुछ ताम्रपत्र मिले हैं जिसमे राजर्षितुल्य वंश के शासक भीमसेन (द्वितीय) का उल्लेख है। राजर्षितुल्य नाम के राजवंश का शासन दक्षिण-कौसल में पाँचवीं सदी के आस पास था। कुछ लोगों का यह कहना है कि ये राजा महेन्द्र के वंशज थे, पर इसका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता। राजर्षितुल्य नामक इस राजवंश की वंशावली महाराज सूर से आरम्भ होती है। इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे दयित वर्मा, भीमसेन (प्रथम), विभीषण। छत्तीसगढ़ में इस वंश का शासन सौ वर्षों से भी अधिक समय तक चला।

  • शरभपुरीय वंश - इस वंश की राजधानी शरभपुर में थी। शरभपुर की उप राजधानी थी श्रीपुर। इस वंश के संस्थापक शरभ नाम के राजा थे। उनके कारण ही उस जगह का नाम शरभपुर पड़ा। इतिहास के कई अध्येता यह मानते हैं कि सम्बलपुर (जो अब उड़ीसा में है) ही शरभपुर था। कुछ लोगों का यह मानना है सिरपुर ही शरभपुर कहलाता था। निश्चित रुप से कुछ कह नहीं सकते कि शरभपुर कहां था। शरभ राजा के बाद उनका पुत्र नरेन्द्र राजा हुआ। पर नरेन्द्र के बाद जो राजा हुए, उनका नाम अभी तक नहीं जाना जा सका। इस वंश में प्रतापशाली राजा थे प्रसन्नमात्र, इस वंश के अंतिम राजा थे प्रवरराज। प्रवरराज ने अपनी राजधानी श्रीपुर में रखी थी। कुरुद में कुछ ताम्रपत्र मिले हैं जो राजा नरेन्द्र के काल के हैं। छत्तीसगढ़ में कुछ सोने के सिक्के भी मिले हैं। ये कई स्थानों में मिले हैं, जो प्रसन्नमात्र के समय के हैं। छठी सदी के अंत में शरभपुरीय राजवंश को पाण्डुवंशियों ने पराजित किया था।

  • पाण्डुवंश - पाण्डुवंशियों ने शरभपुरीय राजवंश को पराजित करने के बाद श्रीपुर को अपनी राजधानी बनाया। ईस्वी सन छठी सदी में दक्षिण कौसल के बहुत बड़े क्षेत्र में इन पाण्डुवंशियों का शामन था। पाण्डववंशी राजा सोमवंशी थे और वे वैष्णव धर्म को मानते थे। पाण्डुवंश के प्रथम राजा का नाम था उदयन। इस वंश में एक राजा का नाम था इन्द्रबल। मांदक में जो अभिलेख प्राप्त हुआ है, उसमें इन्द्रबल के चार पुत्रों का उल्लेख किया गया है। इन्द्रबल का एक बेटा था नन्न। राजा नन्न बहुत ही वीर व पराक्रमी था। राजा नन्न ने अपने राज्य का खूब विस्तार किया था। राजा नन्न का छोटा भाई था ईशान-देव। उनके शासनकाल में पाण्डुवंशियों का राज्य दक्षिण कौसल के बहुत ही बड़े क्षेत्र पर फैल चुका था। खरोद जो बिलासपुर जिले में स्थित है, वहां एक शिलालेख मिला है जिसमें ईशान-देव का उल्लेख किया गया है। राजा नन्न का पुत्र महाशिव तीवरदेव ने वीर होने के कारण इस वंश की स्थिति को और भी मजबूत किया था। महाशिव तीवरदेव को कौसलाधिपति की उपाधि मिली थी क्योंकि उन्होंने कौसल, उत्कल व दूसरे और भी कई मण्डलों पर अपना अधिकार स्थापित किया था। राजिम और बलौदा में कुछ ताम्रपत्र मिले हैं जिससे पता चलता है कि महाशिव तीवरदेव कितने पराक्रमी थे। महाशिव तीवरदेव का बेटा महान्न उनके बाद राजा हुआ। वे बहुत ही कम समय के लिये राजा बने थे। उनकी कोई सन्तान नहीं थी। इसीलिये उनके बाद उनके चाचा चन्द्रगुप्त कौसल के नरेश बने। चन्द्रगुप्त के बाद उनके बेटे हर्षगुप्त राजा बने। राजा हर्षगुप्त की पत्नी का नाम वासटा था। वासटा थीं मगध सम्राट सूर्य वर्मा की पुत्री। हर्षगुप्त की मृत्यु के बाद महारानी वासटा ने पति की स्मृति में श्रीपुर में लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण करवाया था। यह मन्दिर बहुत ही सुन्दर है। उस काल की वास्तु कला का श्रेष्ठ उदाहरण है यह मन्दिर। हर्षगुप्त के बाद उनके पुत्र ने श्रीपुर में राजा बनकर शासन किया। उनका नाम था मद्यशिव गुप्त। वे बहुत ही वीर थे। वे और एक नाम से जाने जाते थे-बालार्जुन। उन्हें बालार्जुन इस लिए कहा जाता था क्योंकि वे धनुर्विद्या में निपुण थे। ऐसा कहते हैं कि वे धनुर्विद्या में अर्जुन जैसे थे। सन् 595 ई. में सम्राट बालार्जुन श्रीपुर की गद्दी पर बैठे। साठ वर्ष तक उन्होंने छत्तीसगढ़ पर शासन किया। सन् 595 से सन् 655 तक। इस साठ सालों की अवधि में उन्होंने न जाने कितने निर्माण कार्य करवाये।  सम्राट बालार्जुन के राज्य का विस्तार आज के रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ जिलों पर था। उसके बहुत सारे ताम्रलेख और शिलालेख मिले हैं जिससे उपर्युक्त बातों का पता चलता है।  बालार्जुन की माता वासटा देवी एवं पिता हर्षगुप्त वैष्णव थे। पर बालार्जुन थे शैव। उनकी राजमुद्रा पर हम देखने है कि नन्दी बना हुआ है जिसे परम महेश्वर कहा गया है।  सम्राट बालार्जुन ने सभी धर्मों को समान रुप से राजाश्रय दिया था। उनके शासन काल में उनके सरंक्षण में शैव, वैष्णव, जैन व बौद्ध धर्मो का समान रुप से विकास हुआ। उनके समय में बौद्ध यात्रीयों का समान रुप से आना-जाना लगा रहता था। इसी समय प्रसिद्ध चीनी यात्री हवेन सांग भी यहाँ आये थे। सिरपुर में बौद्ध विहार, प्रतिमाएँ और शिलालेख मिले हैं। उसके माध्यम से हम उस काल की धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के बारे में जान सकते हैं।  सम्राट बालार्जुन के द्वारा कई कवियों, विद्वानों, कलाकारों को राजाश्रय दिया गया था।  छत्तीसगढ़ के इतिहास का अगर "स्वर्णयुग" ढूंढा जाये, तो हम कह सकते हैं कि सम्राट बालार्जुन का शासनकाल ही "स्वर्णयुग" कहलाने योग्य है।  बालार्जुन के उत्तराधिकारी के बारे में ऐसा कहते हैं कि वे विनीतपुर में जाकर बसे थे। उनका नाम था महाभव गुप्त। उसके पुत्र थे शिवगुप्त, और शिवगुप्त के पुत्र थे जनमेजय । जनमेजय ने त्रिकलिंगाधिपति की पदवी धारण की थी। जनमेजय के पुत्र थे महाशिव गुप्त ययाति। ययाति ने विनीतपुर का नाम ययाति नगर रखा था। ययाति के पुत्र थे महाभवगुप्त - भीमरथ। इसके बाद सोमवंशियों के बारे में पता नहीं चलता। छत्तीसगढ़ में इस वंश को चालुक्य राजा कुल के शिव द्वितीय और बाद में नल राजाओं ने आठवीं सदी में समाप्त कर दिया।